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वह निर्जन मार्गों पर चलता था। संध्या समय जब पक्षियों का मधुर कलरव सुनाई देता और समीर के मन्द झोंके आने लगते तो अपने कनटोप को आंखों पर खींच लेता कि उस पर परकृतिसौन्दर्य का जादू न चल जाए। इसके परतिकूल भारतीय ऋषिमहात्मा परकृतिसौन्दर्य के रसिक होते थे। एक सप्ताह की यात्रा के बाद वह सिलसिल नाम के स्थान पर पहुंचा। वहां नील नदी एक संकरी घाटी में होकर बहती है और उसके तट पर पर्वतश्रेणी की दुहरी मेंड़सी बनी हुई है। इसी स्थान पर मिस्त्रनिवासी अपने पिशाचपूजा के दिनों में मूर्तियां अंकित करते थे। पापनाशी को एक बृहदाकार 'स्फिंकस' ठोस पत्थर का बना हुआ दिखाई दिया। इस भय से कि इस परतिमा में अब भी पैशाचिक विभूतियां संचित न हों, पापनाशी ने सलीब का चिह्न बनाया और परभु मसीह का स्मरण किया। तत्क्षण उसने परतिमा के एक कान में से एक चमगादड़ को उड़कर भागते देखा। पापनाशी को विश्वास हो गया कि मैंने उस पिशाच को भगा दिया जो शताब्दियों से इन परतिमा में अड्डा जमाये हुए था। उसका धमोर्त्साह ब़ा, उसने एक पत्थर उठाकर परतिमा के मुख पर मारा। चोट लगते ही परतिमा का मुख इतना उदास हो गया कि पापनाशी को उस पर दया आ गयी। उसने उसे सम्बोधित करके कहा-हे परेत, तू भी उन परेतों की भांति परभु पर ईमान ला जिन्हें परातःस्मरणीय एण्तोनी ने वन में देखा था, और मैं ईश्वर, उसके पुत्र और अलख ज्योति के नाम पर तेरे उद्घार करुंगा।
यह वाक्य समाप्त होते ही सिंफक्स के नेत्रों में अग्निज्योति परस्फुटित हुई, उसकी पलकें कांपने लगीं और उसके पाषाणमुख से 'मसीह' की ध्वनि निकली; माना पापनाशी के शब्द परतिध्वनित हो गये हों। अतएव पापनाशी ने दाहिना हाथ उठाकर उस मूर्ति को आशीवार्द दिया।
इस परकार पाषाणहृदय में भक्ति का बीज आरोपित करके पापनाशी ने अपनी राह ली। थोड़ी देर के बाद घाटी चौड़ी हो गयी। वहां किसी बड़े नगर के अवशिष्ट चिह्न दिखाई दिये। बचे हुए मन्दिर जिन खम्भों पर अवलम्बित थे, वास्तव के उन बड़ीबड़ी पाषाण मूर्तियों ने ईश्वरीय पररेणा से पापनाशी पर एक लम्बी निगाह डाली। वह भय से कांप उठा। इस परकार वह सत्रह दिन तक चलता रहा, क्षुधा से व्याकुल होता तो वनस्पतियां उखाड़कर खा लेता और रात को किसी भवन के खंडहर में, जंगली बिल्लियों और चूहों के बीच में सो रहता। रात को ऐसी स्त्रियां भी दिखायी देती थीं जिनके पैरों की जगह कांटेदार पूंछ थी। पापनाशी को मालूम था कि यह नारकीय स्त्रियां हैं और वह सलीब के चिह्न बनाकर उन्हें भगा देता था।
अठारहवें दिन पापनाशी को बस्ती से बहुत दूर एक दरिद्र झोंपड़ी दिखाई दी। वह खजूर के पत्तियों की थी और उसका आधा भाग बालू के नीचे दबा हुआ था। उसे आशा हुई कि इनमें अवश्य कोई सन्त रहता होगा। उसने निकट आकर एक बिल के रास्ते अन्दर झांका (उसमें द्वार न थे) तो एक घड़ा, प्याज का एक गट्ठा और सूखी पत्तियों का बिछावन दिखाई दिया। उसने विचार किया, यह अवश्य किसी तपस्वी की कुटिया है, और उनके शीघर ही दर्शन होंगे हम दोनों एकदूसरे के परति शुभकामनासूचक पवित्र शब्दों का उच्चारण करेंगे। कदाचित ईश्वर अपने किसी कौए द्वारा रोटी का एक टुकड़ा हमारे पास भेज देगा और हम दोनों मिलकर भोजन करेंगे।
मन में यह बातें सोचता हुआ उसने सन्त को खोजने के लिए कुटिया की परिक्रमा की। एक सौ पग भी न चला होगा कि उसे नदी के तट पर एक मनुष्य पाल्थी मारे बैठा दिखाई दिया। वह नग्न था। उसके सिर और दा़ी के बाल सन हो गये थे और शरीर ईंट से भी ज्यादा लाल था। पापनाशी ने साधुओं के परचलित शब्दों में उसका अभिवादन किया-'बन्धु, भगवान तुम्हें शान्ति दे, तुम एक दिन स्वर्ग के आनन्दलाभ करो।'
पर उस वृद्ध पुरुष ने इसका कुछ उत्तर न दिया, अचल बैठा रहा। उसने मानो कुछ सुना ही नहीं। पापनाशी ने समझा कि वह ध्यान में मग्न है। वह हाथ बांधकर उकडूं बैठ गया और सूयार्स्त तक ईशपरार्थना करता रहा। जब अब भी वह वृद्ध पुरुष मूर्तिवत बैठा रहा तो उसने कहा-'पूज्य पिता, अगर आपकी समाधि टूट गयी है तो मुझे परभु मसीह के नाम पर आशीवार्द दीजिए।'
वृद्ध पुरुष ने उसकी ओर बिना ताके ही उत्तर दिया-
'पथिक, मैं तुम्हारी बात नहीं समझा और न परभु मसीह को ही जानता हूं।'
पापनाशी ने विस्मित होकर कहा-'अरे जिसके परति ऋषियों ने भविष्यवाणी की, जिसके नाम पर लाखों आत्माएं बलिदान हो गयीं, जिसकी सीजर ने भी पूजा की, और जिसका जयघोष सिलसिली की परतिमा ने अभीअभी किया है, क्या उस परभु मसीह के नाम से भी तुम परिचित नहीं हो ? क्या यह सम्भव है ?'
वृद्ध-'हां मित्रवर, यह सम्भव है, और यदि संसार में कोई वस्तु निश्चित होती तो निश्चित भी होता !'
पापनाशी उस पुरुष की अज्ञानावस्था पर बहुत विस्मित और दुखी हुआ। बोला-'यदि तुम परभु मसीह को नहीं जानते तो तुम्हारा धर्मकर्म सब व्यर्थ है, तुम कभी अनन्तपद नहीं पराप्त कर सकते।'
वुद्ध-'कर्म करना, या कर्म से हटना दोनों ही व्यर्थ हैं। हमारे जीवन और मरण में कोई भेद नहीं।'
पापनाशी-'क्या, क्या? क्या तुम अनन्त जीवन के आकांक्षी नहीं हो ? लेकिन तुम तो तपस्वियों की भांति वन्यकुटी में रहते हो ?'
'हां, ऐसा जान पड़ता है।'
'क्या मैं तुम्हें नग्न और विरत नहीं देखता ?'
'हां, ऐसा जान पड़ता है।'
'क्या तुम कन्दमूल नहीं खाते और इच्छाओं का दमन नहीं करते ?'
'हां, ऐसा जान पड़ता है।'
'क्या तुमने संसार के मायामोह को नहीं त्याग दिया है ?'
'हां, ऐसा जान पड़ता है। मैंने उन मिथ्या वस्तुओं को त्याग दिया है, जिन पर संसार के पराणी जान देते हैं।'
'तुम मेरी भांति एकान्तसेवी, त्यागी और शुद्घाचरण हो। किन्तु मेरी भांति ईश्वर की भक्ति और अनन्त सुख की अभिलाषा से यह वरत नहीं धारण किया है। अगर तुम्हें परभु मसीह पर विश्वास नहीं है तो तुम क्यों सात्विक बने हुए हो ? अगर तुम्हें स्वर्ग के अनन्त सुख की अभिलाषा नहीं है तो संसार के पदार्थों को क्यों नहीं भोगते ?'
वुद्ध पुरुष ने गम्भीर भाव से जवाब दिया-'मित्र, मैंने संसार की उत्तम वस्तुओं का त्याग नहीं किया है और मुझे इसका गर्व है कि मैंने जो जीवनपथ गरहण किया है वह सामान्तयः सन्टोषजनक है, यद्यपि यथार्थ तो यह है कि संसार की उत्तम या निकृष्ट, भले या बुरे जीवन का भेद ही मिथ्या है। कोई वस्तु स्वतः भली या बुरी, सत्य या असत्य, हानिकर या लाभकर, सुखमय या दुखमय नहीं होती। हमारा विचार ही वस्तुओं को इन गुणों में आभूषित करता है, उसी भांति जैसे नमक भोजन को स्वाद परदान करता है।'
पापनाशी ने अपवाद किया-'तो तुम्हारे मतानुसार संसार में कोई वस्तु स्थायी नहीं है ? तुम उस थके हुए कुत्ते की भांति हो, जो कीचड़ में पड़ा सो रहा है-अज्ञान के अन्धकार में अपना जीवन नष्ट कर रहे हो। तुम परतिमावादियों से भी गयेगुजरे हो।'
'मित्र, कुत्तों और ऋषियों का अपमान करना समान ही व्यर्थ है। कुत्ते क्या हैं, हम यह नहीं जानते। हमको किसी वस्तु का लेशमात्र भी ज्ञान नहीं।'
'तो क्या तुम भरांतिवादियों में हो ? क्या तुम उस निबुद्धि, कर्महीन सम्परदाय में हो, जो सूर्य के परकाश में और रात्रि के अन्धकार में कोई भेद नहीं कर सकते ?'
'हां मित्र, मैं वास्तव में भरमवादी हूं। मुझे इस सम्परदाय में शान्ति मिलती है, चाहे तुम्हें हास्यास्पद जान पड़ता हो। क्योंकि एक ही वस्तु भिन्नभिन्न अवस्थाओं में भिन्नभिन्न रूप धारण कर लेती है। इस विशाल मीनारों ही को देखो। परभात के पतीपरकाश में यह केशर के कंगूरोंसे देख पड़ते हैं। सन्ध्या समय सूर्य की ज्योति दूसरी ओर पड़ती है और कालेकाले त्रिभुजों के सदृश दिखाई देते हैं। यथार्थ में किस रंग के हैं, इसका निश्चय कौन करेगा ? बादलों ही को देखो। वह कभी अपनी दमक से कुन्दन को जलाते हैं, कभी अपनी कालिमा से अन्धकार को मात करते हैं। विश्व के सिवाय और कौन ऐसा निपुण है जो उनके विविध आवरणों की छाया उतार सके ? कौन कह सकता है कि वास्तव में इस मेघसमूह का क्या रंग है ? सूर्य मुझे ज्योतिर्मय दीखता है, किन्तु मैं उसके तत्त्व को नहीं जानता। मैं आग को जलते हुए देखता हूं, पर नहीं जानता कि कैसे जलती है और क्यों जलती है ? मित्रवर, तुम व्यर्थ मेरी उपेक्षा करते हो। लेकिन मुझे इसकी भी चिन्ता नहीं कि कोई मुझे क्या समझता है, मेरा मान करता है या निन्दा।'